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झारखंड में उर्दू पत्रकारिता के भीष्मपितामह जफर साहब

झारखंड की उर्दू पत्रकारिता जगत में जो शून्यता का माहौल बना है उसे कभी भरा नहीं जा सकेगा।

नवेन्दु उन्मेष:आखिर रमजान के इस पवित्र महीने में झारखंड में उर्दू पत्रकारिता के भीष्मपितामह कहे जाने वाले एम ए जफर साहब सोमवार की सुबह हमसभी को छोड़कर चले गये। उनके निधन से झारखंड की उर्दू पत्रकारिता जगत में जो शून्यता का माहौल बना है उसे कभी भरा नहीं जा सकेगा। जफर साहब झारखंड में पहले व्यक्ति थे जिन्होंने आधुनिक तकनीक विहीन उर्दू पत्रकारिता की दुनिया में रांची से ‘फारूकी तंजीम’ नामक उर्दू दैनिक का प्रकाशन शुरू करने का जोखिम 1990-91 में उठाया। मेन रोड में रतन टाकीज के पीछे वाली गली में दो-तीन कमरे वाले झोपड़ीनुमा एक मकान में फारूकी तंजीम का कार्यालय खोला था। इसके पहले संपादक डा.अब्दुल क्युम अब्दाली थे।
यह वह समय था जब उर्दू पत्रकारिता कातिब के कलम से मुक्त हो रही थी। न्यूज एजेंसियों ने भी उर्दू सर्विस शुरू कर दिया था। तब मैंने पहली बार देखा कि कातिब किस तरह से उर्दू को सजाकर लिखते हैं और तब जाकर फारूकी तंजीम का प्रकाशन होता है। उस वक्त कातिब चटाई बिछाकर जमीन पर बैठा करते थे और उर्दू के पत्रकार उन्हें खबरों की जानकारी देते थे कि किस खबर को किस तरह प्रस्तुत करना है।
उसी दौर में मेरी उनसे मुलाकात हुई। वे एक मंजे हुए उर्दू के पत्रकार थे। इससे पूर्व पटना से फारूकी तंजीम का प्रकाशन कर रहे थे। रांची में उन्होंने कई अच्छे उर्दू पत्रकारों को जन्म दिया और उन्हें उर्दू पत्रकारिता सिखाई। जब भी मुझसे मिले सहृदय मिले। एकबार मुझे उन्होंने बुलाया और कहा कि अब मैं रांची और जमशेदपुर से हिन्दी अखबार आर्यावर्त का प्रकाशन करने जा रहा हॅू्र। तुम्हें रांची या जमशेदपुर का संपादक बनाना चाहता हूं। कई माह तक वे मुझे बहू बाजार के निकट स्थित अपने आवास पर बुलाते और काफी आदर सत्कार करते। हिन्दी अखबार कैसे निकाला जायेगा और उसकी नवीनतम तकनीक क्या होगी। इस पर खूब चर्चा करते। उनका उद्देश्य रांची और जमशेदपुर से हिन्दी के अलावा अंग्रेजी दैनिक निकालने का भी था। वे रांची में आवास होने के बावजूद रहते पटना में थे। बीच-बीच में रांची आते थे। दैनिक आर्यावर्त निकालने पर मंथन चल ही रहा था कि वे मुझे पटना यह कहकर चले गये कि मैं अपनी मां का इलाज कराने जा रहा हूं। वापस लौटने के बाद पुन: इस पर विचार करूंगा।
पता नहीं क्यों उन्होंने बाद के दिनों में हिन्दी या अंग्रेजी में अखबार निकालने का विचार त्याग दिया। जब कि बड़े ही मनोयोग से हिन्दी अखबार का कार्यालय भी खोला था। हालांकि उन्होंने बातचीत के दौरान मुझे कभी नहीं बताया कि उन्होंने पटना से प्रकाशित देनिक आर्यावर्त को दरभंगा महाराज से खरीदा है या नहीं।

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